Sangharsh (Part 1)

ऊँचे ऊँचे पहाड़ो के बीच
खड़ी हूँ मैं अकेली
चारों ओर सन्नाटा इस कदर
नाज़ाने क्यों, आज फ़िज़ा भी खामोश है।

पर मेरे अंदर ,
शांति का नामो – निशान नहीं।
अंगारे अभी भी सुलग रहे हैं ,
उसी पुरानी आग के।

समाज से दूर
बेड़ियों में अभी भी जकड़ी हूँ।
लड़ाई अब भी जारी है
मुक्ति के अहसास के लिए ।

हार या जीत के
मायने अब समाप्त है।
इस संघर्ष में ही
अब मेरा जीवन व्याप्त है।

Image Credits: Pixabay

© Neelesh Maheshwari

12 thoughts on “Sangharsh (Part 1)”

Leave a comment