Check Part 1. Sangharsh (Part 1)
समाज की बेड़ियों ने
जकड़ा हुआ है इस कदर
की उड़ना तो मै भी हूँ चाहती खुले आसमान में
पर होंसला है मेरा पस्त।
ऐसा नहीं कि हार मैंने है यूँ ही मानी
खूब लड़ी थी मै भी
उन पुराने खयालातों से
उन दकियानूसी बातों से।
कई बार थी गिरी ,
थी हज़ारो ठोकरे खायी।
उठी थी मै हर बार
बढ़ाने को मुक्ति की ये लड़ाई।
पर टूट चुकी हूँ मै आज
और स्वीकार करती हूँ अपनी हार।
अब संघर्ष मेरा समाप्त है
इन बेड़ियों में ही मेरा जीवन व्याप्त है।
© नीलेश माहेश्वरी